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पान सिंह तोमर देखने के बाद रोना आता है………….

About My Thinking
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रत के बारह बजे थे | मैं खाना खा के पानी पी रहा था | तभी मेरे रूम पार्टनर ने बताया की बगल के रूम वाला बंदा पान सिंह तोमर देखने जा रहा है तेरे को देखनी हो तो आ जा | वैसे मै सोने जा रहा था | लेकिन जब पान सिंह तोमर की बात थी तो सोचा चलो देखता हूँ | स्टार्टिंग में लगा कि बकबास है लेकिन इरफ़ान खान के अभिनय ने हमें बोर नहीं होने दिया | जैसे – जैसे समय गुजरता गया | मेरा इंटरेस्ट बढता गया | देखते देखते एक ऐसा मोड़ आया कि एक खिलाडी जो देश के लिए अपनी जिन्दगी कुर्वानकरने को तैयार है पर अफ़सोस कि उसे मौका नहीं मिलता है | दोस्तों हमें किसी के हकीकत नहीं पता होती है | हम सब कुछ ओनी तरह सोचते है | लेकिन ऐसा होता नहीं है | जैसा पान सिंह तोमर के साथ हुआ | उसके साथी सोचते है | कि वो डर की वज़ह से जंग में नहीं जाता है | उसके बाद जब वो रेश जीत लेता है | तो पूरे देश को उस पर गर्व होता है | लेकिन आपकी ऊँचाई किसी को राश नहीं आती खासकर उसको जो आपके ज्यादा करीब हो | वही हुआ पान सिंह के साथ उनके चचेरे भाई जो अपनी ताकत के वाल पर सब कुछ भूल जाते है | पान सिंह कानून में आस्था रखता है | सभी के दरवाज़े खटखटाता है | लेकिन इस सिस्टम से सिर्फ उसे निराशा ही मिलती है | घर वापस जाता है तो रश्ते में ही पता चलता है कि माँ को मारा है और पत्नी भी घर से भाग गयी है | वहां से पान सिंह की लाइफ में एक नया अध्याय जुड़ता है | अब वो खिलाडी से बागी बन जाता है | ऐसा बागी जिसके नाम मात्र से इलाके के लोग काँप जाते है | इस मूवी को देखने पर एक बार ऐसा नहीं लगा कि हम मूवी देख रहे है | इसमें जिन्दगी के उन पहलुयो का सजीव चित्रण किया गया है जो सभी को नहीं देखने को मिलता है | इस कहानी में दिखाया गया कि एक सरकारी कर्मचारी ये सोचता है कि अगर हम काम कर रहे है तो वो हम एहसान कर रहे है | उन्हें ये पता नहीं है कि हम सेवक है हमारा काम सिर्फ सेवा करना है | मै पान सिंह तोमर को खिलाडी से डाकू बनाने के पीछे सिर्फ और सिर्फ इस सिस्टम को दोषी मानता हूँ | मुझे इस बात का रोना आता है कि हमारे का सिस्टम इतना ख़राब है कि सभी इसकी मार से त्रस्त है | फिर भी देश के नेता इसे बदलने की नहीं सोचते है | इसमें पान सिंह के चाचा या उनके लडको कि गलती नहीं है | वो इंसानी प्रवर्ति की वज़ह से उसकी जमीन या फसल को हडपते है | लेकिन पान सिंह को कानून से न्याय मिलना चाहिए था | उस इस्पेक्टर कि गलती नहीं है | वो भी सिस्टम की गिरफ्त में फंसा हुआ था | अगर कोई सिस्टम को बदलने कि सोचता है | तो उसका हश्र वही होता है | जो आईपीएस नरेन्द्र कुमार का हुआ | सिस्टम तो नहीं बदला लेकिन उन्हें अपनी बलि देनी पड़ी | सिस्टम बदलना होगा और कोई और आकर नहीं बदलेगा अब हमें खुद बदलना होगा |……………………………………..

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